10 May 2005

कविता

  • पिंजरे में कैद पंछी

पिंजरे में कैद
एक पंछी ने
हमसे किया सवाल—
न हमने कहीं डाला डाका
न किसी की आबरू पर ताका
न किसी देशद्रोही का दिया साथ
न हमारा किसी हवाले में है हाथ
फिर बताइये, हमें किस लिए किया है बंद
यही सवाल हमारे दिमाग में घूम रहे हैं चंद ।
आखिर कैसा है तुम्हारा ये लोकतंत्र ?
जबकि ये तमाम अपराधी घूम रहे हैं स्वतंत्र
हमने कहा भाई !
तुम्हारी बात में है शत् प्रतिशत् सच्चाई
तुम्हें बंद रखने के इनमें से कोई नहीं हैं कारण
तुम तो पंछी जाति में
मनुष्य जैसे बोलने वाले एकमात्र हो उदाहरण
तुम दिखते हो सुन्दर
तुम्हारा नाम है तोता
तुम्हारे घर में होने से आदमी
अकेले होने पर भी अकेला नहीं होता
तुम्हारे बात करने से भाग जाते हैं चोर
वे सोचते हैं, क्या मालूम इस घर में
न जाने कितने आदमी हैं और
तुम करते हो बातें बड़े शान की
तुम्हारे इन्हीं गुणों के कारण
तुम्हें दहेज में साथ लायी थीं माँ जानकी
ऍसा ही एक और हमने,
गीता में पढ़ा है तुम्हारा प्रसंग
जब तुम ॠषियों के रहते थे संग
वहाँ ॠषियों के बालक
रोज मंत्रों का करते थे गुणगान
वे मंत्र तुम सीख गए थे श्रीमान्
लेकिन एक दिन एक चोर ने तुम्हे चुराया
और ले जाकर एक वेश्या को थमाया
तुम वहाँ भी उन मंत्रों को गुनगुनाने लगे
और रोज उस वेश्या को सुनाने लगे
तुम्हारी इस प्रक्रिया से
उस वेश्या का अन्तःकरण हो गया शुद्ध
वह सद्गति पा गई
और मित्र उस दिन से यह बात
हमारे दिल को भा गई ।
कि तुम इसी तरह किसी दिन खोल दो
ईश्वर से जुड़ने का कोई रहस्य या कोई भेद
और सच पूछो तो, शायद इसीलिए
तुम्हें पिंजरे में रखा गया है कैद ।।

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:: सुभाष यादव ::

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