10 May 2005

कविता

पन्नी बीनते बच्चे


वे बच्चे
जो बीनते हैं पन्नी
कब हो जाते जवान
पता ही नहीं चलता श्रीमान
कब लग जाते कमाने
उन्हें आज तक
कोई नहीं गया स्कूल दिखाने
उन्हें जन्म से ही
दिखा दी जाती है रोटी
फिर वे रोटी के चक्कर में
बीनने निकल पड़ते पन्नी
कहीं से उठाते प्लास्टिक का जूता
कहीं से प्लास्टिक की छन्नी ।
यह देख हर मोहल्ले का कुत्ता
उन पर भौंकता
हर आदमी उनको टोंकता
कई तो दे देते गाली
मगर श्रीमान् ! आज तक उन्होंने
किसी के विरुद्ध आवाज़ तक नहीं निकाली
वे इसे अनसुना कर दूसरे मोहल्ले में बढ़ जाते
उस मोहल्ले के कुत्ते भी उन पर गुर्राते
मगर, वे चुपचाप पन्नी बीनते रहते
दिन भर धूप छाँव सहते
ढ़लते सूरज को देख पहुँच जाते किसी दूकान
बेंच कर पन्नी खरीदते सामान
जलाते किसी प्लेटफार्म या खुले मैदान में चूल्हा
सेंक कर रोटी खाते
खुले आसमान के नीचे सो जाते
न कोई चिन्ता न कोई फिक्र उन्हें सताती
न कोई ट्रेन या मोटर की आवाज़ उन्हें जगाती
न जनता का शोरगुल उन्हें उठा पाता
केवल सूर्य ही उन्हें जगाता
उठते ही फिर पन्नी बीनने निकल जाते ।
इसी प्रकार अपना जीवन बिताते
एक दिन हो जाते जवान
इसी गगन के नीचे,
उनकी शादी हो जाती श्रीमान्
फिर उनके भी हो जाते बच्चे
दबाये बच्चों का काँख में
पन्नी बीनने निकल जाते
उन बच्चों को भी,
पन्नी बीनने के गुर सिखाते
चलते ही पैर, वे भी बीनने लगते पन्नी
चाहे मुन्ना हो मुन्नी
इसी प्रकार उनका बीत जाता
बचपन, बुढ़ापा, जवानी
ये है उनके जीवन की कहानी ।
अगर ये बच्चे नहीं होते श्रीमान्
तो मोहल्ले की पन्नियाँ कौन बीनता ?
इन पन्नियों से नालियाँ हो जाती चोक
फिर कौन करता इनकी सफाई
ये तो इन बच्चों की है दुहाई
कि बच गई नाली की गंदगी
रोड पर आने से
और हम बच गये
नगरपालिका के चक्कर लगाने से
ये तो इन बच्चों के हैं एहसान
अगर ये बच्चे नहीं होते श्रीमान्
तो मोहल्ले में, पन्नियों के लग जाते ढ़ेर
आज बस्ती में है पन्नी
कल पन्नी में बस्ती हो जाती
जिनको खाने से
कई गौ माताओं की जान खतरे में पड़ जाती
सच में ये बच्चे, देश के लिए वरदान है
पर्यावरण को शुद्ध रखने में
इनका बहुत बड़ा योगदान है ।

***


:: सुभाष यादव भारती ::

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