बात उन दिनों की है
जब हम रहते थे गाँव में
और खेलते थे इमली की छाँव में
तब कई मित्र थे मेरे
जो घंटों रहते थे घेरे
तब जाति पाँति का नहीं था ज्ञान
तब नहीं था कोई हिन्दू या मुसलमान
तब हम सब थे भाई भाई
वे दिन, कितने सुहाने और नेक थे
जब हम सब एक थे
तब नहीं थी बिजली की रोशनी
केवल एक दीप टिमटिमाता था
जो अंधकार में राह दिखाता था ।
आज भरपूर है रोशनी
पर राह का कोई अता पता नहीं
अर्थात् हम रोशनी की चकाचौंध में
अपने पथ से गए हैं भटक
देखकर रोशनी की चटक मटक
हम सब गए हैं भूल
आज नहीं है गाँव की धूल
जिसमें बैठकर के हम
बुजुर्गों की ज्ञानभरी बातें
सुनते थे ध्यान से
और जग के कल्याण की
दुआ करते थे भगवान से
आज नहीं है वह दीपक की रोशनी
जिसके चारों ओर बैठकर पढ़ते थे हम
रोशनी फिर भी नहीं पढ़ती थी कम
उस समय दस बार मिलते थे दिन रात में
और घंटों बिता देते थे बात बात में
आज दूभर हो गया है मिलना एक बार
भीड़ में खो गया है वह स्नेह, वह प्यार
आज दिलों में नहीं है वह चाहत वह प्यास
जिसकी वास्तव में है तलाश
आज मैं यादव से, यादव जी
और शर्मा से शर्मा जी हो गया हूँ
जमाने के भटकाव में बह गया हूँ ।
आज वह अपनत्व भरा शब्द
भैया, हो गया है गायब
जिसमें झलकता था अपनापन
जिसमें साफ स्वच्छ था मन
अर्थात अब न तो वह प्यार भरा शब्द है
न ही वह अपनापन
आज रेगिस्तान की तरह हो गया है मन
आज भी एक ही शहर में मेरे कई मित्र हैं
लेकिन वो समर्पण, वो स्नेह, वो प्यार नहीं
अब मन में वह टीस, वह तड़फ, वह पुकार नहीं
आज किसी से भी एकाएक गले मिलना
हो गया है दूभर
क्योंकि एकाएक गले मिलने पर
उनके मन में, शंका कुशंकाएँ जन्म ले लेती हैं
मन ही मन कहती हैं
क्या मालूम, क्यों यादव जी
इतनी हमदर्दी दिखा रहे हैं
बार बार गले लगा रहे हैं
आज दोस्त हैं, गाड़ी है, मकान है
बीबी है, बच्चे हैं दुकान है
सब कुछ है मेरे पास
परन्तु नहीं है वह आत्मीय प्यास
जिसमें हम बेधड़क गले मिलते थे
जिसमें अपनत्व के फूल खिलते थे
आज सब कुछ पाकर भी
मैंने बहुत कुछ खो दिया है
जो मुझे मेरे देश की संस्कृति ने दिया है ।
उस समय किसी के दुःख दर्द में
शरीक होता था पूरा गाँव
आज घर में ही नहीं है वह भाव
यही सब सोचकर आँखें भर आती हैं
जब याद उस समय की आती है
जिसकी मुझे अभी भी तलाश है
जिसकी मन में अभी भी प्यास है
उस समय आदमी को आदमी से प्यार था
और सच पूछो तो
मेरा पूरा गाँव ही एक परिवार था ।
***
:: सुभाष यादव भारती ::